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विमर्श

भीम राव अंबेडकर और दलित चिंतन की प्रतिबद्धता : परिवर्ती अंबेडकरवाद या दलित नवजागरण युग

वीरेंद्र सिंह यादव


इसमें कोई शक नहीं कि वर्ण व्यवस्था के माध्यम से परंपरावादियों ने एक प्रकार की निर्णायक संस्कृति और मनोवैज्ञानिक जीत हासिल कर ली है। शायद इसकी प्रतिक्रिया के कारण ही दलित चेतना पूर्णतः उभार पर है। दलित आंदोलन/संस्कृति साहित्य के प्रणेता डॉ. अंबेडकर ने ठीक ही लिखा है - "हिंदू धर्म मेरी बुद्धि में जँचता नहीं, स्वाभिमान को भाता नहीं। जो धर्म तुम्हें शिक्षा प्राप्त नहीं करने देता, उस धर्म में तुम क्यों रहते हो? जिस धर्म में मनुष्यता नहीं, वह धर्म उद्दंडता की सजावट है।"1 डॉ. अंबेडकर ने महसूस किया इस छुआछूत के विनाश के लिए अनिवार्य है कि जाति का विनाश हो। साथ ही वर्ण व्यवस्था जिस पर जातियाँ आधारित हैं, का विनाश हो। चूँकि जाति हिंदू धर्म का प्राण है, अतः जब तक हिंदू धर्म इसके वर्तमान रूप में प्रचलित है तब तक जाति प्रथा रहना स्वाभाविक है। हमारे यहाँ जाति सामाजिक, राजनैतिक एवं आर्थिक जीवन का मूल स्रोत है अर्थात जाति सामाजिक संस्कारों एवं रिश्तों की सीमा तय करती है।

दलित संवेदनाओं को अपने जीवनकाल में निरंतर भोगते रहने के कारण डॉ. अंबेडकर का अनुभव प्रगाढ़ था। इसलिए आपने अपने संबोधन में बड़ी दृढ़ता से कहा था कि - "हिंदू धर्म में दलितों की उन्नति संभव नहीं है। मैं हिंदू धर्म में मरूँगा नहीं। हिंदू धर्म विषमतावादी है। हिंदू धर्म अछूतों का धर्म नहीं। उच्चता कर्म से नहीं जन्म से है। हिंदू समाज व्यवस्था मुर्दे के समान है। हिंदू देवताओं के दर्शन से कोई लाभ नहीं है।"2 सामाजिक एकता का सिद्धांत उनको बौद्ध धर्म के अंदर ही मिल गया। यही कारण था कि उन्होंने अपने कई अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया था। उनका यह कदम हमेशा विवादास्पद ही रहा है। किंतु यदि हम उनके धर्म परिवर्तन के पीछे की वास्तविक भावना को समझें तो हमें प्रतीत होता है कि इस धर्म परिवर्तन के पीछे उनका यह विश्वास था जो उन्हें सामाजिक एकता के आदर्श की ओर ले गया। इसका एक दूसरा पक्ष भी है। संभवतः उनको बौद्ध धर्म की महत्ता का अहसास न होता यदि वे पश्चिम के उदारवादी दृष्टिकोण के संपर्क में न आते। उन्होंने कई विदेशी समाजों का गहन अध्ययन किया था और इन समाजों की जो विशेषता उनको विशेष रूप से प्रिय थी, वह थी सामाजिक एकता। उनको यह अहसास हुआ कि भारतीय धर्म-दर्शनों में बुद्ध-दर्शन ही एक ऐसा दर्शन है जो सामाजिक एकता का आदर्श प्राप्त कर सकता है। जहाँ टैगोर ने आध्यात्मिक मानवतावाद का सिद्धांत प्रचारित किया, नेहरू ने समाजवादी दृष्टिकोण को समझने-समझाने का प्रयास किया, वहीं डॉ. अंबेडकर ने जातीय संदर्भ में पश्चिमी उदारवादी दृष्टिकोण की महत्ता को समझाने का प्रयत्न किया। उनकी इस भूमिका को उचित स्थान दिया जाना चाहिए।

हमारे तथाकथित हिंदू समाज की सनातनी व्यवस्था में भारतीय दीन-दलित समाज अज्ञानांधकार में तड़फड़ाने के साथ चातुर्वर्ण्य व्यवस्था में पिसने के साथ दरिद्रता की आग में जल रहा था। इसके पीछे कारण यह था कि हमारे सिद्धांत सदियों से ईश्वरकृत, अपौरुषेय एवं प्रश्नों से परे माने जाते रहे, क्योंकि इन सिद्धांतों की जड़ें हमारे जेहन में इतनी गहरी कर दी गई थीं, साथ ही इनकी व्याख्या ऐसी की गई थी जिनका कोई अकाट्य प्रमाण नहीं था। ऐसे मृत्त्व, अस्पृश्य दलित समाज में भगवान बुद्ध के पश्चात कई शताब्दियों तक कोई एक अकेला ऐसा सामाजिक चिंतक भारत में नहीं अवतरित हुआ जिसने इन तथाकथित सिद्धांतों का खंडन किया हो। हजारों वर्षों से शोषित, पीड़ित, दलित, अछूतपन, शासक-पोषक, सवर्ण वर्गों के जघन्य एवं अमानवीय शोषण, दमन, अन्याय के विरुद्ध छोटे-मोटे संघर्ष को संगठित रूप देने का कार्य सर्वप्रथम अद्भुत प्रतिभा, सराहनीय निष्ठा, न्यायशीलता, स्पष्टवादिता के धनी बाबा साहब युगपुरुष डॉ. भीमराव अंबेडकर जी ने किया। आप ज्ञान के भंडार और दलितों एवं शोषितों के मसीहा बनकर भारतीय समाज में अवतरित हुए। आपने दलितों एवं शोषितों को समाज में सर ऊँचा कर बराबरी के साथ चलना सिखाया। आप ऐसे समाज की केवल कल्पना ही कर सकते हैं, जब हमारे पुरखों में से कुछ को इनसान जैसी शक्ल-सूरत होने के बावजूद, उन्हें सवर्ण समाज इनसान नहीं समझता था। ऐसे समाज के प्रति बाबा साहब ने स्वस्तित्व की सामर्थ्य, अस्मिता एवं क्रांति की आग जलाई जिससे सामाजिक न्याय प्राप्त के लिए अनेक दलित-शोषित कार्यकर्ता आत्मबलिदान के लिए उनके साथ खड़े हो गए।

परंपरावादी व्यवस्था (वैदिक संस्कृति) के कारण हजारों वर्षों से कुचले गए समाज के लोग आज ''दलित'' संज्ञा से जाने जाते हैं और उनके विरोध का प्रमुख कारण वर्ण-धर्म है। कर्म श्रेष्ठ न होने पर भी जाति के नाम से श्रेष्ठ कहलाने वाला व्यक्ति या समाज अपने आप में एक धोखा है। विश्व की सभ्यता और संस्कृति में ऐसा कहीं भी देखने को नहीं मिलेगा कि व्यक्ति को एक बार स्पर्श होने से छूने वाला व्यक्ति अपवित्र हो जाए। भारत में अस्पृश्यता के इस जादुई सिद्धांत का कोई तार्किक जवाब किसी समाजशास्त्री के पास अभी तक उपलब्ध नहीं है। यह अनूठा और बेमिसाल सिद्धांत पूर्णतया षड्यंत्र और बेईमानी के अलावा कुछ नहीं दिखता है। जीवन की इन दग्ध एवं करुण स्थितियों से उबरने के लिए दलित साहित्य के माध्यम से दलित अपनी अस्मिता को पहचानने का प्रयास कर रहा है - दलित कौन है, उसकी स्थिति क्या थी? उसकी इस स्थिति के लिए कौन उत्तरदायी है, उनकी संस्कृति क्या थी? उसके पूर्वज कौन थे? यह चिंतन ही दलित साहित्य के प्रमुख विषय हैं। दलित समुदाय के बहुजन (करोड़ों) लोग आर्य हिंदुओं से सामाजिक न्याय की आशा लगाए हुए हैं, परंतु धर्मांधता और असमानता के पक्षधर ये लोग समानता के चिंतन को ताक में रख देते हैं। आज देश में करोड़ों निर्धन, अनपढ़, बेरोजगार दलित व्यक्ति अपनी अस्मिता की तलाश में भटक रहे हैं। गिरिराज किशोर के शब्दों में कहें तो भारतीय समाज, खासतौर से जातीय हिंदू समाज, जिसके कारण देश में दालित पनपा और आज भी अपने विकृत रूप में मौजूद है, विचित्र और परस्पर विरोधी मानसिकताओं का पुंज बनकर रह गया है। यह सब हजारों वर्षों से चले आ रहे मानसिक और मनोवैज्ञानिक अवरोधों का प्रतिफल है। ये मानसिक ग्रंथियाँ ही विभिन्न स्तरों पर अपने को सही साबित करती हुई दालित को बढ़ाती ही नहीं गईं अपितु उसे अस्पृश्यता और दमन का शिकार भी बनाती गईं। इसी का फल था कि दलितों को भी यह समझाया गया कि दालित्य कर्मफल है।

संसार में ऐसा कोई देश नहीं होगा जो मानव-मानव में इतना भेद रखता हो। परंतु भारत का दलित, वह शोषित मानव है जो पैदा हुआ तब भी दलित है, जिंदा रहेगा तब भी दलित है और मरेगा तब भी दलित है। अर्थात आज भी दलित समाज स्मृति युग की परंपरा में जी रहा है। कुछ मामलों में आज भी अछूत अन्य सवर्ण समाज के समक्ष बैठ नहीं सकता। उसके बच्चों के साथ बराबरी में बैठकर पढ़ नहीं सकता। चाय पीने के लिए अछूतों के लिए अलग कप, गिलास की व्यवस्था है। अछूतों के नाई द्वारा बाल नहीं बनाए जाते हैं। सामूहिक उत्सव में ढोल नहीं बजाने दिया जाता। पंचायत में बराबरी से नहीं बैठने दिया जाता। जातिवादी मोहल्लों में अछूतों को मकान किराए पर नहीं दिए जाते। अछूतों को बारात ले जाते समय बैंड-बाजों पर रोक लगा दी जाती है। घोड़ी पर नहीं बैठने दिया जाता। अछूतों के लिए शमशान भूमि पृथक से है। अछूतों को मद्रास में कुछ स्थानों पर दिन में खरीद-फरोख्त की इजाजत नहीं है। ये समस्त उदाहरण संपूर्ण भारत के राज्यों में व्याप्त दलित वेदनाओं एवं सत्य घटनाओं पर आधारित हैं। परंतु सामाजिक परिवर्तन के इस दौर में स्थितियाँ दलितों के पक्ष में भी जा रही हैं। राजनीति ने वर्तमान दौर में दलितों को असीमित अधिकार दिए हैं और दलितों को इससे काफी राहत भी मिली है परंतु कभी-कभी सनातनी व्यवस्था के शिकार कुछ दलित आज भी हो जाते हैं।

वर्तमान समय में दलितों के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती उनकी जातीय अस्मिता एवं आर्थिक स्थिति को लेकर है। क्योंकि जगतगुरु से लेकर छोटे धार्मिक मठाधीशों तक किसी को भी इस बात की चिंता नहीं है कि दलितों को निरंतर शोषण एवं उत्पीड़न से कैसे बचाया जा सकता है? समाज में उन्हें सम्मानजनक स्थिति में कैसे लाया जा सकता है? कुछ परंपरावादी दलित चिंतक साहित्यकार, समानता और भ्रातृत्व पर आधारित बौद्ध एवं अंबेडकरवादी सिद्धांत की ओर आकर्षित हो रहे हैं, जो भारतीय संविधान की आत्मा भी है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि जैसे-जैसे अँग्रेजी शासन काल में अछूतों और शूद्रों के लिए शिक्षा के द्वारा खुलते गए, ये लोग शिक्षित होते गए। जहाँ एक ओर विज्ञान की चहुमुँखी तरक्की ने दुनिया को अपनी मुठ्ठी में समेट लिया है, वहीं शूद्रों द्वारा हिंदू धर्म ग्रंथों को अधिकाधिक रूप में पढ़ा जाने लगा है। स्वतंत्र भारत में संवैधानिक संरक्षण और प्रदत्त सुविधाओं, अपने अधिकारों को समझने और उन्हें पाने के कारण से परंपरावादियों के अनेक बंधन शिथिल होते गए। वर्तमान में भी जो सनातनी (वैदिक) साहित्य उपलब्ध है, उसमें अभिजात्य एवं सवर्णवादी प्रवृत्तियों के लक्षण सर्वाधिक व्याप्त हैं। उसमें शासक और शोषित दोनों ही भावनाएँ सर्वत्र नजर आती हैं।

परिवर्तित अंबेडकरवाद या दलित नवजागरण युग

अंबेडकरवाद की द्वितीय मुक्त शृंखला का आरंभ सन 1975 के बाद प्रारंभ होता है। 1975 के बाद दलित चेतना की जो धारा विकसित हुई, वह इसलिए विशिष्ट है कि उसने हिंदी जगत में अपनी पृथक और विशिष्ट पहचान बनाई। यह प्रयास अभिनव एवं महत्वपूर्ण है, क्योंकि अभी तक ऐसा प्रयास किसी युग में नहीं किया गया था। एक पृथक धारा के रूप में हिंदी दलित साहित्य इसी युग में अस्तित्व में आया। यही नहीं बल्कि उसे परिभाषित भी इसी काल में किया गया। यह धारा समग्र रूप में अंबेडकर-दर्शन से विकसित हुई और यह दर्शन ही उसका मूलाधार बना। इसमें कोई दो राय नहीं कि अंबेडकर-दर्शन में दलित-मुक्ति की अवधारणा की अभिव्यंजना ही वर्तमान हिंदी दलित साहित्य की प्रतिबद्धता है। इसने नए सौंदर्यशास्त्र की स्थापना की जो स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व के सिद्धांतों पर आधारित है। इस धारा ने अपने सौंदर्यशास्त्र से हिंदी मुख्यधारा के साहित्य का मूल्यांकन कर उसे काफी हद तक दलितों के लिए अप्रासंगिक साबित किया है। इसने प्रेमचंद्र, निराला एवं अन्य रचनाकारों तक का पुनर्मूल्यांकन किया और उनकी कई रचनात्मक स्थापनाओं पर प्रश्नचिह्न भी लगाए। वर्तमान हिंदी दलित साहित्य इस अर्थ में भी विशिष्ट है कि साहित्य की सभी विधाओं में उसका विकास हो रहा है। यद्यपि फुले और अंबेडकर ने संस्थागत प्रयत्नों के माध्यम से दलितों के पक्ष-पोषण की बात की लेकिन सन 1970 के दशक के बाद कई संस्थाएँ सामने आती हैं, जिन्होंने अपने प्रयासों से दलितों के उत्थान पर कार्य किया। इस संदर्भ में दलित साहित्य प्रकाशन संस्था, अंबेडकर मिशन, दलित आर्गनाइजेशन, राष्ट्रीय दलित संघ, दलित राइटर्स फोरम, दलित साहित्य मंच, लोक कल्याण संस्थान आदि के माध्यम से दलितों की स्थिति सुधारने के संदर्भ में अनेक कार्य किए गए! इन दलित संस्थाओं ने जिन दो महत्वपूर्ण पक्षों की ओर ध्यान आकृष्ट कराया उनमें एक है दलितों की सामाजिक स्थिति में सुधार और दूसरा दलितों के लिए आरक्षण की माँग। इस संदर्भ में भारतीय संविधान में संशोधन का भी प्रावधान किया गया और संस्थाओं में समाचार पत्रों, लेखों और गोष्ठियों का भी सहारा लिया जिसके माध्यम से दलितों को जागरूक और एकत्रित करने का कार्य किया गया। यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि इन संस्थाओं ने दलित चिंतन को राजनैतिक स्वरूप भी प्रदान किया और समाज में एक विशेष वर्ग का नए सिरे से ध्रुवीकरण किया। इसमें कोई संदेह नहीं है कि वर्तमान सामाजिक एवं राजनैतिक परिप्रेक्ष्य में दलित विमर्श चिंतन का एक प्रमुख हिस्सा बन चुका है। मौजूदा दलित साहित्यकारों ने दलित लेखन को स्थपित करने के लिए कड़ा संघर्ष किया। यह उनके संघर्षों का ही परिणाम है कि हिंदी जगत और मीडिया ने एक शताब्दी की लंबी उपेक्षा के बाद दलित साहित्य को स्वीकार किया और उसे अपने पत्रों एवं पत्रिकाओं में थोड़ा-थोड़ा स्थान दिया। लेकिन यह भी तब संभव हुआ, जब सामाजिक परिवर्तन की राजनीति ने नई दलित चेतना विकसित की और उसका प्रभाव संपूर्ण संविधान पर पड़ा। इसलिए यह हिंदी जगत की राजनैतिक विवशता भी है। इस मत से कुछ विद्वत दलित चिंतकों की असहमति हो सकती है, परंतु सत्ता के बनते-बिगड़ते समीकरण भी दलित साहित्य को प्रभावित करते हैं, इस बात से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता है। कुछ हद तक यह युग दलित पत्रकारिता के लिए भी जाना जाएगा, क्योंकि दलित साहित्य के साथ-साथ दलित पत्रकारिता का भी सशक्त विकास इस युग में हुआ है। दलित पत्रकारों में डॉ. सोहनपाल सुमनाक्षर, मोहन दास नैमिशराय, डॉ. श्यौराज सिंह 'बेचैन', के.पी. सिंह, प्रेम कपाड़िया, मणिमाला, ओमप्रकाश वाल्मीकि, मोहर सिंह, बी.आर. बुद्धिप्रिय, सुरेश कानडे, डॉ. वीरेंद्र सिंह यादव इत्यादि पत्रकारों ने दलित पत्रकारिता को प्रखर दलित प्रश्नों से जोड़कर विचारोत्तेजक और क्रांतिकारी बनाया है। इसलिए दलित चेतना के इस वर्तमान युग को दलित 'नवजागरण' युग का नाम भी दिया जा सकता है।

संदर्भ ग्रंथ : सूची

1. युगपुरुष डॉ. अंबेडकर स्मारिका, 2006, सामाजिक न्याय व्यवस्था के सजग प्रहरी, डॉ. भीमराव अंबेडकर, डॉ. वीरेंद्र सिंह यादव, पृष्ठ-19

2. सामाजिक क्रांति के अग्रदूत : डॉ. भीमराव अंबेडकर, डॉ. वीरेंद्र सिंह यादव, जन-सम्मान, नवंबर, 2005, पृष्ठ-19

3. युगपुरुष डॉ. अंबेडकर स्मारिका, 2006, सामाजिक न्याय और व्यवस्था के सजग प्रहरी : डॉ. भीमराव अंबेडकर, डॉ. वीरेंद्र सिंह यादव, पृष्ठ-18

4. दलित विमर्श : संदर्भ गांधी, गिरिराज किशोर, पृष्ठ-28, 29

5. दलित विमर्श : चिंतन एवं परंपरा, नवंबर, 2005, (सं.) डॉ. वीरेंद्र सिंह यादव, पृष्ठ-66


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